बुधवार, 22 जून 2022

"स्वयं को जाने"

नमस्ते ,                                                                          

जब व्यक्ति अज्ञान में होता हैं तो दुख से भरा होता हैं, अशांत और विक्षिप्त होता हैं।  आंतरिक सुख और शांति प्राप्त करना चाहता हैं और वो अध्यात्म की और अपना रुख करता हैं फिर वो एक मार्ग ढूंढता हैं, एक गुरु ढूंढ़ता हैं, अब गुरु के निर्देश पर चलनाअनुशासन पर चलना अति आवश्यक हैं तभी प्रगति सम्भव हैं अध्यात्म का निर्णय स्वयं का होना चाहिए किसी का  थोपा हुआ नहीं


स्वयं को जानना माना अस्तित्व के मूल तत्व को जानना अस्तित्व के दो चेहरे हैं- एक अनुभव, दूसरा अनुभवकर्ता दोनों का विलय होता हैं तो अनुभवक्रिया स्थापित होती हैं, जो अस्तित्व हैं, सम्पूर्ण हैं और उसका तत्व शून्य हैं और वो मैं हूँ मेरे में अनंत संभावनाएं हैं, ये हुआ मेरा तत्व जो अपरिवर्तनशील हैं और माया परिवर्तनशील हैं

संसार में मनुष्य का जन्म स्वयं को जानने के लिए हुआ की मैं कौन हूँ? या मैं क्या हूँ? दूसरा प्रारब्ध कर्म फल काटने के लिए हुआ हैं स्वयं को जानने से प्रारब्ध कर्म काटना सरल हो जाता हैं

सभी ऋषि, मुनिगुरुजन का एक ही स्वर हैं स्वयं को जानो। 
स्वयं को जानने में हमें कुछ जमा नहीं करना हैं, पर जो जमा हैं उसे त्याग देना हैं और जो बच गया वो मेरा तत्व है जो शून्य हैं अज्ञेय का ज्ञान नहीं होता वहा बुद्धि शांत हो जाती है, ज्ञान अज्ञान सब छूट जाता हैं और समर्पण आ जाता हैं


मनुष्य सबको जानता हैं पर स्वयं को नहीं जानता ये बड़ी विडंबना हैं काव्यात्मक रूप से कहेगे की
"दुनियां में उसने बड़ी बात करली जिसने अपने से मुलाकात करली”, और अपने से मुलाकात गुरु कराता हैं

जब स्वयं को नहीं जानते तो कहते हैं की पत्नी को ये करना चाहिए, संबंधी को ये करना चाहिए, मित्र को मित्रता निभानी चाहिए।सब के प्रति उम्मीद रखते हैं, क्योंकि दूसरों पर कार्य हो रहा हैं

" धूल चेहरे पर थी और मैं आइना साफ करता रहा"

खुद को नहीं जाना और दूसरों से आशा रखते हैं परन्तु दूसरा भी वैसे ही भ्रम में हैं, वो भी कैसे जानेगा? वो भी मिथ्या में खेल खेलता रहता हैं जो समाज से मिला हैं और जो मतारोपण और मान्यताएं डाली गई हैं। संबंधी, परिवार, मित्र को कहते हैं की मैं ने तुम्हारे लिए इतना किया तुम भी करो, वापसी की इच्छा हैं स्वयं को जानने के बाद जो भी कार्य होता हैं वो परोपकार हैं और परोपकार माना अहंकार का ना होना, इच्छा का ना होना

स्वयं को जानना माना अस्तित्व हो जानना हैं फिर धर्म की दीवारे, द्वैष की दीवारे तूटती जाति हैं और प्रेम का प्रदुर्भाव होता हैं और प्रफुल्लता रहती हैं अपना दृष्टिकोण संसार के प्रति बदल जाता हैं

आत्मन् को जानने से दूसरों को मजबूत करने के अपेक्षा स्वयं को मजबूत करोगे तो आप प्रेम में भरे भरे रहोगे फिर आप में डर नाम की चीज़ नहीं रहेगी को
ई आप की मदद करेंगे की नहीं ये भी नहीं रहेगा। जब में अपना ही कल्याण नहीं कर रहा तो मेरे स्वभाव में ही नहीं हैं किसी का कल्याण करने का

"इंसान घर बदलता हैं, लिबास बदलता हैं, रिश्ते बदलता हैं फिर भी परेशान क्यों रहता हैं क्योंकि वो खुद को नहीं बदलता हैं"

स्वयं को जानना सरल हैं, दूसरे को जानना कठिन हैं क्योंकि मनुष्य का मन जटिल हैं

जब आपका शुद्धिकरण हो जाता हैं, तो आप में सत्य, सरल, निष्कपट, निर्दोषभाव आ जाता हैं और आप
की तरफ सब आकर्षित होते हैं, जैसे चुम्बक की तरफ लोहे के कण आकर्षित होते हैं यहां पर स्वयं को विराम देते हैं

 🙏🙏🙏 

2 टिप्‍पणियां:

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