नमस्ते,
अध्यात्म में गुरुप्रेम की अति महिमा हैं l अस्तित्व पूर्ण और सुन्दर हैं , उसमे गुरूप्रेम समाहित हैं l गुरुप्रेम अलौकिक हैं l सांसारिक प्रेम लौकिक हैं l जहाँ सम्बन्ध हैं वहाँ आसक्ति और बंधन हैं l इससे विपरीत गुरु सभी संबंधो से परे हैं, वहाँ कोई बंधन नहीं हैं, वहाँ स्वतंत्रता और मुक्ति हैं l
प्रेम एक उत्कृष्ट ऊर्जा हैं, भावना हैं जो अस्तित्व में प्रकाशित हैं जो हमें गुरु से जुड़ती हैं l शिष्य ज़ब गुरु के पास आता हैं तो कोई भी दोष या विकार देखे बिना गुरु सभी अवगुणो के साथ शिष्य को अपना लिया जाता हैं, क्योकि गुरु उसे अपना हीं रूप देखता हैं l ये गुरु की विशेषता हैं l शिष्य में कोई गुण नहीं हैं परंतु प्रेम हैं तो भी आध्यात्मिक विकास हो सकता हैं l
गुरु के प्रेम में कोमलता, मधुरता, सुंदरता और सरलता समाहित हैं l गुरुप्रेम से शिष्य का कार्य आसान हो जाता हैं l शिष्य का संसार से मन निकलकर गुरु में पड़ता है फिर गुरु शिष्य को स्वयं में स्थित करता हैं l प्रेम मंजिल तक पहुंचाता हैं, एक वाहन का कार्य करता हैं l
गुरु प्रेम में कोई मांग नहीं, कोई शर्त नहीं, कोई स्वार्थ नहीं हैं सिर्फ देना हीं देना हैं लेने का नाम नहीं ये गुरु की विलक्षणता हैं, वहाँ उस प्रेम में दिव्यता, शुद्धता और पवित्रता हैं l गुरु व्यक्ति पांच फूट का हैं परंतु गुरु तत्व असीमित और विराट हैं l गुरु को देहभाव से समझेंगे तो सिमित ज्ञान प्राप्त होगा l जहाँ से गुरु बोलता हैं वहाँ से समझने का प्रयास करना हैं l
गुरु हैं वाणी, वाणी हैं गुरु l
विच वाणी, अमृत सार ll
जैसे हीं वाणी का स्मरण होता हैं, गुरु का स्मरण स्वः आ जाता हैं l सच्चा गुरु बाहर से साधारण होते हैं परंतु अंदर से असाधारण होते हैं l उनकी वाणी अमृत, तेज, बल और तासीर से भरी होती हैं l उनके शब्द से आकर्षण टपकता हैं l गुरु का प्रेम शिष्य को बदलने की ताकत रखता हैं l प्रेम आध्यात्मिक यात्रा पार करने का सबसे उत्तम साधन हैं l
प्रेम शब्द अति लघु हैं परंतु अति शक्तिशाली हैं l प्रेम में स्वः हीं समर्पण हो जाता हैं और अहंकार की दीवार टूट जाती हैं l गुरुप्रेम में कुर्बानी और त्याग हैं l सच्चा प्रेम अध्यात्म में हीं मिलेगा, वो प्रेम बदलता नहीं, ऊपर नीचे नहीं होता, जिस प्रेम में स्थिता हैं और एकरसता हैं l
मनुष्य इतना लोभी हैं की ज़ब तक रूपये का डेढ़ नहीं मिलता तब तक कुछ करने को तैयार नहीं हैं l ज़ब ज्ञान के फल से अवगत होता हैं की कितना आनंद, शांति, प्रेम और मुक्ति हैं तभी मार्ग अपनाता हैं l गुरु का प्रेम अध्यात्म में ऊपर चढ़ाता हैं परंतु संसार का प्रेम विषयो में नीचे गिराता हैं l
काव्यात्मक रूप से कहाँ हैं -"गुरु प्रेम का सागर हैं हम सागर की बूंद हैं l" परंतु गुरु बूंद और सागर का भेद मिटाके अद्वैत प्रेम स्वरूप में स्थित करता हैं l ज्ञान से ज़ब भारीपन होता हैं तो प्रेम हीं हल्का करता हैं l गुरुप्रेम में इतनी ताकत हैं की असंभव कार्य भी संभव होने लगता हैं l जिसे हम चमत्कार घटित होना भी कहते हैं l तभी कहाँ हैं :-
श्रद्धा की जुबान नहीं होती परंतु l
ये वो चीज हैं जो आँखो से बयान होती हैं ll
गुरु की ये खासियत होती हैं की प्रेम को प्रदर्शित नहीं करता हैं l पृथ्वी पर प्रकृति ने सुन्दर कृतियाँ बनाई हैं, उसमे से गुरु एक कृति हैं जो उच्च आसन पर स्थापित होने योग्य हैं l गुरु का प्रेम सबके लिए समान रूप से हैं वहाँ कोई जाति, धर्म, सम्प्रदाय, गरीब या शहूकार नहीं देखा जाता हैं l
शिष्य फिर भी गुरु को त्याग देता हैं परंतु गुरु कभी शिष्य को नहीं त्यागता हैं l ये गुरु की कृपा और करुणा हैं l अंत में गुरु और शिष्य में कोई भेद नहीं रहता पूर्णता आ जाती हैं, ये गुरुप्रेम की महिमा हैं l
श्री गुरुवे नमः
🙏🙏🙏🙏
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंप्रेम ही वह सूत्रभाई जिस पर सारा अस्तित्व खड़ा है, और वहां तक ले जाने वाला गुरु के सिवा कोई नहीं।
प्रेम ही ज्ञान के भारीपन को हल्का करता है। और यह गुरुप्रेम ही है, जो श्रद्धा में फलित होती है।
बहुत सुंदर प्रीति।