नमस्ते,
जीवन समर्पण मांगता हैं l समर्पण माना अपना आप अर्पण करना l संसार में पुत्र अपने मातापिता को, सेवक अपने मालिक को और देशप्रेमी अपने देश के प्रति आदि...समर्पित होते हैं l परन्तु यह सच्चा समर्पण नहीं हैं l यहाँ कहाँ न कहाँ स्वार्थ, कमजोरी, डर और असुरक्षा का भाव हैं l
ज़ब हम अध्यात्म में आते हैं तो जिस मार्ग पर होते हैं उस मार्ग को समर्पित होते हैं l जैसे, भक्तिमार्ग में भगवान (इष्ट) को समर्पित होते हैं, ज्ञानमार्ग में ज्ञान को और तंत्रमार्ग में देवी को समर्पित होते हैं l मनुष्य समर्पण नहीं कर सकता परंतु गुरु के प्रेम में सहज हीं समर्पण हो जाता हैं करना नहीं पड़ता हैं l समर्पण उच्च कोटि की भावना हैं जो अनाहद चक्र हैं l समर्पण एक स्वीकार भाव भी हैं l
समर्पण से चित्त का विकास होता हैं l अहम भाव समर्पण में अवरोध डालता हैं l अहम दीवार हैं तो समर्पण द्वार हैं l ज्ञानमार्ग में सर्वप्रथम समर्पण गुरु को करना हैं, उनके बताये निर्देशों का पालन करना हैं और अंत में ज्ञान को समर्पण होना हैं l समर्पण कृपा से ही संभव हैं l
नदी समुद्र से मिलने के लिए विचलित होती हैं, ज़ब नदी समुद्र को समर्पित होती हैं, तो नदी विराट समुद्र में परिवर्तित हो जाती हैं, शांत और स्थिर हो जाती हैं, पूर्णता आ जाती हैं l
" जो खोते हैं वो सब पा लेते हैं जो बचाते हैं वो नष्ट हो जाते हैं l "
ज्ञानी ज्ञान का विश्लेषण करने के लिए बुद्धि का उपयोग करता हैं, परंतु सत्य के लिए बुद्धि का समर्पण आवश्यक हैं l शून्य तत्व मेरा हैं और अस्तित्व का तत्व भी शून्य हैं तो बुद्धि कुछ जान नहीं पाती तो समर्पण आ जाता हैं l
समर्पण किसका कर सकते हैं जो चीज मेरी नहीं उसका समर्पण कैसे संभव हैं l ज्ञानमार्ग में प्रारम्भ में बुद्धि का समर्पण नहीं करना हैं क्योंकि बुद्धि से हीं ज्ञान अपरोक्ष अनुभव और तर्क के आधार पर जाना जा सकता हैं l
" आकर्षण तो कहाँ भी हो सकता हैं,
पर समर्पण कहीं कहीं होता हैं l "
विश्वास, श्रद्धा, प्रेम ये समर्पण का हीं रूप हैं उसे प्रकार भी कहाँ जायेगा l जहाँ प्रेम हैं वहाँ समर्पण घटित होता हैं, समर्पण हमें अज्ञान का, अहम का, अच्छी या बुरी बाते आदि...का करना हैं, जहाँ कुछ बचता नहीं हैं सब त्याग दिया जाता हैं l
समर्पण माना हार मानना नहीं हैं या हाथ पे हाथ धर के बैठना नहीं हैं l समर्पण सरल भी हैं और साहस भी लगता हैं l कमजोर व्यक्ति समर्पण नहीं कर सकता l समर्पण में कुछ हिसाब किताब या मांग नहीं होनी चाहिए l समर्पण निःस्वार्थ होना चाहिए l
द्वैत से समर्पण शुरू होता हैं और अद्वैत में समर्पण का अंत हो जाता हैं l अद्वैत में कौन किसको समर्पण करे समर्पण करने वाला कोई व्यक्तिविशेष बचता हीं नहीं हैं l स्वयं हीं स्वयं को समर्पित हो रहा हैं l यहाँ पर कुछ बोलना बचता नहीं हैं, मौन आ जाती हैं l
श्री गुरुवे नमः
🙏🙏🙏
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